झांसी! बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में चल रहे राष्ट्रीय पुस्तक मेला और अखिल भारतीय लेखक शिविर के दूसरे दिन ओटीटी और सिनेमा मुद्दे पर चर्चा हुई। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए फिल्म समीक्षक और हिंदी विभाग के वरिष्ठ शिक्षक प्रो. पुनीत बिसारिया ने कहा कि सिनेमा का अर्थ साहित्य, नृत्य और मनोरंजन होता था लेकिन अब ओटीटी में सिर्फ सस्तापन, नग्नता और मसाला रह गया है। इस क्षेत्र से जुड़े कई लोगों ने ऐसा कंटेंट बना दिया है जो परिवार के साथ देखने लायक भी नहीं है। सिनेमा ओटीटी का पर्याय नहीं हो सकता है मुख्य वक्ता डॉ. कौशल त्रिपाठी ने कहा कि ओटीटी ने मीडिया की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के लिए रोजगार के नए अवसर खोले। पहले बहुत कम युवाओं को रोजगार मिलता था लेकिन, ओटीटी ने नए पटकथा लेखकों के साथ ही टेक्निकल काम करने वाले युवाओं को भी मौका दिया है। रंगकर्मी आरिफ शहडोली ने बताया कि हमें बदलते समय को स्वीकार करना होगा। सिनेमा का अपना महत्व है और हमेशा बना रहेगा। सिनेमा आज भी समाज और परिवार को जोड़ने का काम करता है लेकिन, ओटीटी एकाकीपन को बढ़ावा देता है। पत्रकार लक्ष्मी नारायण शर्मा ने कहा कि समय उतनी तेजी से नहीं बदलता जितना हम सोचते हैं। ओटीटी के जमाने में सिनेमा खत्म हो रहा है यह सही नहीं है, कंटेंट अच्छा हो तो ऑडियंस हमेशा मिलेगा। चाहे माध्यम कोई भी हो। कहानी रोमांचकारी होगी तो दर्शक उसको जरुर पसंद करेगा। चुनौतियां हर क्षेत्र में आती हैं लेकिन, इन चुनौतियां से ही कुछ नया सीखने को मिलेगा। अभिनेता देवदत्त बुधौलिया ने कहा कि ओटीटी ने छोटे कलाकारों को मौका देने के साथ ही छोटे शहरों को भी बढ़ावा दिया है। मायानगरी के तिलिस्म को तोड़ने में ओटीटी ने अहम भूमिका निभाई है
पत्रकारिता के शिक्षक डॉ. राघवेन्द्र दीक्षित ने कहा कि ओटीटी समाज को यूनिट फैमिली की तरफ बढ़ावा दे रहा है। ओटीटी ने समाज का नजरिया बदल दिया है, किंतु ओटीटी को फिल्टर करने की जरूरत है। वहां जो कॉन्टेंट आ रहा है वह समाज को बिगाड़ने में अधिक भूमिका निभा रहा है। कॉन्टेंट बनाने वालों को एथिकल बैकग्राउंड का ध्यान रखना चाहिए। अतिथियों का स्वागत प्रो. मुन्ना तिवारी ने किया. संचालन और आभार डॉ. श्रीहरि त्रिपाठी ने किया