मायावती अक्सर बड़े और खास मुद्दों पर अपनी बात रखती रही हैं, लेकिन हाल फिलहाल जिस स्पीड से सोशल मीडिया पर उनके बयानों की बौछार देखने को मिल रही है, ऐसा लगता है जैसे वो बात बात पर सफाई देने की कोशिश कर रही हों – लेकिन ऐसा करके वो स्थिति साफ करने से कहीं ज्यादा कन्फ्यूज कर रही हैं.
मायावती ने हाल ही में कहा था कि सक्रिय राजनीति से उनके संन्यास लेने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीएसपी नेता का कहना था कि उनके खिलाफ फेक न्यूज फैलाई जा रही है – और आरोप लगाया था कि ये काम ‘जातिवादी मीडिया’ कर रहा है.

और मायावती के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में फिर से बीएसपी का अध्यक्ष चुन लिये जाने के बाद ऐसे सारे ही कयास और अफवाह खत्म मान लिये जाने चाहिये. बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव पांच साल के लिए होता है, यानी अगले पांच साल तक तो ये बहस होनी नहीं है. वैसे भी 18 सितंबर, 2003 से मायावती के अध्यक्ष बनने के बाद से बीते 21 साल में ऐसी कोई बहस कभी हुई भी नहीं है. बेशक बहुत सारे नेता बीएसपी छोड़ चुके हैं, लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी, शिवसेना और एनसीपी जैसी नौबत मायावती के सामने कभी नहीं आई है – न ही कभी समाजवादी पार्टी जैसा झगड़ा ही देखने को मिला है.

ऐसा भी नहीं है कि मायावती बीएसपी को परिवारवाद की राजनीति के साये से दूर रख पाती हों. पहले अपने भाई को भी पार्टी में लाई थीं, और अब तो भतीजे आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना ही चुकी हैं.

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