• क्यों निशाने पर सिर्फ़ ब्राह्मण – सवर्ण ?

नेपाल में हालिया आंदोलन सत्ता-विरोध का प्रतीक था। जनता भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और प्रशासनिक अक्षमता के खिलाफ़ सड़कों पर उतरी थी। लेकिन इस आंदोलन को जानबूझकर “ब्राह्मणवाद विरोध” का नाम दिया गया। असल मुद्दे पीछे छूट गए और इस विमर्श को जातिवादी रंग देकर ब्राह्मण समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया गया। यह प्रवृत्ति केवल नेपाल तक सीमित नहीं है, भारत में भी एक लंबे समय से जातीय राजनीति का सबसे आसान शिकार ब्राह्मण ही बने हैं।

आज एक चिंताजनक स्थिति हमारे सामने है—दलित उत्थान और सामाजिक न्याय के नाम पर जिस तरह का विमर्श रचा गया, उसमें ब्राह्मणों को “सॉफ्ट टारगेट” बना दिया गया। इतिहास से लेकर आज तक जब भी जातिवाद की चर्चा हुई, खलनायक के रूप में सबसे पहले और सबसे तेज़ी से ब्राह्मण को ही खड़ा कर दिया गया।

शिक्षा के क्षेत्र में उदाहरण साफ़ हैं। सामान्य वर्ग से आने वाले ब्राह्मण विद्यार्थी 90–95 प्रतिशत अंक लाने के बाद भी उच्च शिक्षा और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में सीट से वंचित रह जाते हैं। गरीब ब्राह्मण परिवार न तो सरकारी छात्रवृत्ति पाते हैं और न ही आरक्षण की कोई ढाल। यह एक प्रकार का “सफ़ेदपोश गरीबी” है, जो आँकड़ों में नहीं दिखती, मगर हकीकत में उससे जूझते परिवार हर गाँव और हर शहर में मौजूद हैं।

कानूनी क्षेत्र में भी तस्वीर उतनी ही भयावह है। अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम का दुरुपयोग किसी से छिपा नहीं। NCRB की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि बड़ी संख्या में दर्ज मामले झूठे साबित हुए, और इन मामलों का सबसे अधिक असर ब्राह्मण परिवारों पर पड़ा। निर्दोष साबित होने के बावजूद वर्षों तक अपमान, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक बरबादी इन्हें झेलनी पड़ती है।

राजनीतिक मंचों से ब्राह्मण-विरोधी नारों का दिया जाना अब आम हो गया है। बिहार और मध्य प्रदेश के हालिया उदाहरण हमारे सामने हैं जहाँ खुलेआम “ब्राह्मणवाद खत्म करो” जैसे नारे लगाए गए। यह प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ़ है बल्कि समाज को जातीय वैमनस्य की खाई में धकेलने वाली है।

नीति आयोग के सर्वेक्षण बताते हैं कि सामान्य वर्ग (जिसमें ब्राह्मण बड़ी संख्या में हैं) के 40 प्रतिशत से अधिक परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। फिर भी इनकी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं, न कोई सरकारी मदद। गरीबी, बेरोज़गारी और सामाजिक अपमान इनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं।

ब्राह्मणों की यह पीड़ा महज़ आँकड़ों की कहानी नहीं है। लखनऊ के शिक्षक रामकुमार त्रिपाठी सात साल तक झूठे मुकदमे में फँसे रहे और बरी होने के बावजूद नौकरी और सामाजिक सम्मान खो बैठे। बिहार का छात्र 92 प्रतिशत अंक लाने के बाद भी मेडिकल में प्रवेश से वंचित रहा क्योंकि आरक्षण की व्यवस्था उसके रास्ते में दीवार बनकर खड़ी थी।

आज यह सवाल पूरे समाज के सामने खड़ा है—क्या समानता और न्याय के नाम पर किसी एक पूरे समुदाय को खलनायक बना देना सही है? क्या यह उचित है कि ब्राह्मण होना ही अपराध मान लिया जाए?

जातिवाद का ज़हर अब पहले से कहीं अधिक फैल चुका है और इसका सबसे बड़ा शिकार ब्राह्मण समाज बना है। समय की माँग है कि इस प्रवृत्ति को चुनौती दी जाए और समाज को बताया जाए कि जातीय विद्वेष से किसी का उत्थान नहीं होगा। सच्चा सामाजिक न्याय तभी संभव है जब हर वर्ग को बराबरी का हक़ और सम्मान मिले—न कि किसी एक समुदाय को अपमान और उत्पीड़न का प्रतीक बनाकर।

  1. लखनऊ रामकुमार त्रिपाठी (शिक्षक)
    • झूठे SC/ST केस में 7 साल फँसे।
    • निर्दोष साबित हुए लेकिन नौकरी निलंबित रही।
    • परिवार कर्ज़ और तिरस्कार में डूबा।
  2. दरभंगा, बिहार गरीब ब्राह्मण परिवार
    • पिता रिक्शा चलाते हैं, बेटा 92% लाने के बावजूद मेडिकल में सीट नहीं।
    • रिज़र्वेशन सिस्टम ने रास्ता बंद कर दिया।
  3. मध्य प्रदेश राजनीतिक रैली
    • खुलेआम नारा: “ब्राह्मणवाद खत्म करो।”
    • प्रशासन मौन।
    • ब्राह्मण समुदाय दहशत और आक्रोश में।
  1. लखनऊ

रामकुमार त्रिपाठी, साधारण शिक्षक। 7 साल तक झूठा केस झेला। निर्दोष साबित हुए, लेकिन नौकरी निलंबित रही, परिवार तबाह।

डेटा और तथ्य

  • गरीबी: नीति आयोग (2021) के मुताबिक़, सामान्य वर्ग में 40% से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे, जिनमें ब्राह्मण प्रमुख।
  • शिक्षा: UPSC (2022) आँकड़े — सामान्य वर्ग से 89% छात्र बिना चयन के रह जाते हैं, आरक्षण का असर सबसे ज़्यादा ब्राह्मण छात्रों पर।
  • कानून: NCRB (2022) रिपोर्ट — SC/ST एक्ट के 28% केस झूठे पाए गए, इनसे सबसे अधिक प्रभावित ब्राह्मण परिवार।

नेपाल आंदोलन की जातीय चाल

  • हालिया नेपाल आंदोलन मूलतः भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ था।
  • मगर इसे जबरन ब्राह्मणवाद विरोधी विद्रोह बताकर प्रचारित किया गया।
  • सत्ता-विरोध को जातीय युद्ध का रूप देकर ब्राह्मण समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया गया।

 ब्राह्मण: सॉफ्ट टारगेट की राजनीति

  • दलित उत्थान और सामाजिक न्याय की आड़ में ब्राह्मणों को हर मंच पर कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।
  • असली सवाल—बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य—पीछे छूट जाते हैं।
  • ब्राह्मणवादशब्द एक हथियार बन चुका है, जिससे वोट बैंक साधा जाता है।

शिक्षा में अन्याय

  • सामान्य वर्ग से आने वाले ब्राह्मण विद्यार्थियों को 95% अंक लाने के बाद भी प्रवेश नहीं
  • दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार की प्रवेश परीक्षाओं में आरक्षण नीतियों से सीटें छिनती हैं
  • गरीब ब्राह्मण परिवार अपने बच्चों को पढ़ाने में असमर्थ, लेकिन किसी भी सरकारी सहायता से वंचित।

कानून का दुरुपयोग

  • SC/ST एक्ट का बार-बार दुरुपयोग कर ब्राह्मणों को झूठे मुकदमों में फँसाया गया।
  • NCRB रिपोर्ट (2022): बड़ी संख्या में झूठे केस ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ।
  • निर्दोष साबित होने के बावजूद सालों तक अपमान और आर्थिक तबाही झेलनी पड़ती है।

राजनीतिक मंचों से ब्राह्मण-विरोध

  • बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में खुलेआम नारे: ब्राह्मणवाद को कुचल दो
  • ब्राह्मण समुदाय को संगठित अपराधी की तरह पेश करना एक खतरनाक प्रवृत्ति।
  • नतीजा—ब्राह्मण समाज राजनीति में हाशिए पर और सामाजिक अपमान का शिकार।

गरीबी का सच

  • नीति आयोग सर्वे: सामान्य वर्ग (जिसमें ब्राह्मण बड़ी संख्या में) के 40% से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे
  • सफ़ेदपोश गरीबी—न शिक्षा में मदद, न नौकरी में सहारा।
  • लेकिन हर बार जातिवाद का खलनायक सिर्फ़ ब्राह्मण!

स्थायी अभियुक्त – ब्राह्मण 

  • प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक जातिवाद का दोषारोपण हमेशा ब्राह्मण पर।
  • शूद्रों के शोषण, महिलाओं के उत्पीड़न, जातीय विभाजन—हर आरोप का ठिकाना सिर्फ़ “ब्राह्मणवाद”।
  • जबकि हक़ीक़त: समाज के हर वर्ग में अत्याचार हुए, परंतु निशाने पर केवल ब्राह्मण।

 समानता नहीं ये साजिश है।

  • आज जातिवाद का ज़हर समाज के हर कोने में फैला है।
  • हर संस्था, हर संगठन, हर आंदोलन—अपनी राजनीति चमकाने के लिए ब्राह्मणों को कठघरे में खड़ा कर रहा है।
  • ब्राह्मण समाज इस समय घोर अन्याय और पीड़ा से गुजर रहा है।
  • सवाल यह है: क्या यह वही “समानता” है जिसकी बात संविधान करता है?

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