महाकुंभ वैसे तो आस्था का महापर्व है, लेकिन यह अजब-गजब साधु-संतों की कहानियों से भी भरा होता है। एक ओर तपस्वी संत अपनी साधना में लीन रहते हैं, वहीं कुछ साधु अपनी अलग ही पहचान बना लेते हैं। यह बाबा अपने-अपने तरीके से संन्यास की परिभाषा को नया आयाम दे रहे हैं।
जब महाकुंभ में ऐसे विलक्षण बाबा मिलते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संन्यास केवल एक मार्ग ही नहीं, बल्कि हर साधु का एक अनोखा संसार भी है। पंचदशनाम जूना अखाड़े के नागा बाबा महंत राजगिरी जी को लोग “एंबेसडर बाबा” के नाम से जानते हैं। वे अपनी 1972 माडल की एंबेसडर कार के साथ पूरे भारत का भ्रमण कर चुके हैं, और यही उनकी पहचान भी बन गई है।
दिलचस्प बात यह है कि बाबा अपनी इस कार को केवल एक वाहन नहीं, बल्कि अपना महल, घर और पुष्पक विमान मानते हैं। उनका दावा है कि इस कार में केवल संन्यासी और नागा ही बैठ सकते हैं, अन्यथा यह चलना बंद कर देती है। एंबेसडर बाबा के पास यात्राओं के अनगिनत अनुभव हैं।
उन्होंने देश के लगभग हर बड़े आध्यात्मिक स्थल की यात्रा की है। सबसे रोचक किस्सा तब का है जब वह अपनी एंबेसडर कार को नाव में लादकर कन्याकुमारी पहुंचे थे। यह उनका तीसरा महाकुंभ है, और हर बार वह इसी कार के साथ आते हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के मेडिकल कालेज में स्वामी रमेशानंद सरस्वती को लोग “मरहम-पट्टी बाबा” के नाम से जानते हैं। ये बाबा संन्यास के साथ-साथ समाजसेवा के भी पर्याय हैं। दिन में अस्पताल में घायलों की मरहम-पट्टी करते हैं और शाम को गौशाला में गायों की सेवा में जुट जाते हैं। इनका जीवन तपस्या से भरा हुआ है।
बचपन में ही इन्होंने विवाह न करने का संकल्प लिया था और आज भी अविवाहित रहकर पूरी तरह समाजसेवा में लीन हैं। निःस्वार्थ भाव से मरीजों की सेवा करना और गौ-सेवा में समय बिताना इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। ऐसे संन्यासी विरले ही मिलते हैं, जो आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ समाज के लिए भी समर्पित हों।
फरसा बाबा हैं आकर्षण का केंद्र
गुजरात के महंत हरिओम भारती, जिन्हें लोग “फरसा बाबा” के नाम से जानते हैं, निरंजनी अखाड़े से जुड़े हुए हैं। इनका जीवन भी किसी तपस्वी योद्धा से कम नहीं। इन्होंने केवल आठ वर्ष की उम्र में ही संन्यास धारण कर लिया था और तब से ही कठोर तपस्या में लीन हैं।